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रविवार, 26 जून 2016

फिर उठता हूँ गर गिरता हूँ

हिन्दी कविता - अनुगूँज
फिर चलता हूँ गर रुकता हूँ
मैं तपता हूँ मैं गलता हूँ
किस्मत कह लो, सूरज कह लो
फिर उगता हूँ गर ढलता हूँ 

उजियारे सब तुमही रख लो
अंधियारे में मैं रहता हूँ
जुगनू कह लो, दीपक कह लो
फिर जलता हूँ गर बुझता हूँ 

तुमको मंजिल हो मुबारक, 
मैं राहों से पत्थर चुनता हूँ
इंसाँ कह लो, झरना कह लो
फिर उठता हूँ गर गिरता हूँ 

नियति चाहे जो भी कर ले
उम्मीदों पे मैं पलता हूँ
जीवन कह लो, सृष्टि कह लो
फिर बनता हूँ गर मिटता हूँ

शुक्रवार, 24 जून 2016

तुम्हें क्या लगता है

हिन्दी कविता Hindi Poem - अनुगूँज

तुम्हें क्या लगता है
यूँ हाथ झटक कर चले जाओगे
और ये रिश्ता टूट जायेगा
जो बना है
कई रिश्तों को ताक पर रख कर?

तुम्हें क्या लगता है
क्या इतना आसान है
पेड़ की जड़ों से
मिट्टी निकाल लेना
या
बारिश से, झरनों से,
हवा से
संगीत मिटा देना?

तुम्हें क्या लगता है
लहरें तटों से
गुस्से में टकराती हैं
या
भौंरे फूलों को
चोट पहुंचाते हैं?
ये धरती, सूरज, चाँद
भी हम जैसे हैं
ग्रहण तो लगता है
रिश्ते नहीं टूटते

पता है? मुझे लगता है
ये ग्रहण भी मिट जायेगा
और ये पेड़, मिट्टी, बारिश, झरने, हवा
ये भौंरे, ये फूल
सभी अपने-अपने रिश्तों में रम जाएंगे

और हम चल रहे होंगे
इनके बीच, फिर से
हाथों में हाथ लिए
तुम्हे क्या लगता है?

बुधवार, 22 जून 2016

कुर्सी

एक कहानी सुनाता हूँ
जो आँखों की बयानी है,
वो कुर्सी जो बैठी है
हुकूमत की निशानी है।

राजा की तरह उसपर
जो इंसान है बैठा,
गलतफहमी में रहता है
कि भगवान है बैठा। 

जी हुज़ूरी की यहाँ
वो सरकार चलाता है,
है धोखे में पड़ा
कि संसार चलाता है।

अमीरों की है सुनता
बस पैसा उगाता है,
ज़मीनें बंजर हो रहीं, देखो
किसान फंदा लगाता है।

गुरुवार, 16 जून 2016

क्या होगा

हवा बदली
खबर आयी
कि मौसम
खुशनुमा होगा

नई शामें
नई रातें
नया अब
हर शमा होगा

नए साथी
नई मंजिल
नया अब
रहनुमा होगा

नई आँखें
कई आँखें
उम्मीदों से
भरी बैठीं

जो न होगा
अगर ऐसा
तो सोचो
फिर क्या होगा?!

मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

कलम की खुशबू

बहुत समय बाद कुछ लिखना चाहा 

तो कलम की जगह अपना मोबाइल उठाया


ज़िन्दगी की खिटपिट, और
मोबाइल की पिट पिट से तंग
बस कुछ शब्द ही जोड़ पाया

भौतिकता में उलझी ज़िन्दगी पे
खुद से कई सवाल किए
और अपने ही सवालों के आगे
खुद को निरुत्तर पाया

मन ढूँढ रहा था कलम की खुशबू
और कोस रहा था मन ही मन तकनीक को भी

झुँझलाकर मैंने तैयारी कर ली सोने की
मोबाइल को लगाया साइलेंट मोड पर

पर ये मन लगा रहा अपने उधेड़बुन में
कि आखिर कलम की वो खुशबू कहाँ गयी ?

रविवार, 3 अप्रैल 2016

तू क्यों ना माने पगली तू क्या है

अंधियारे से इस गगन में
हिचकोले खाते जीवन में
उम्मीदों की है तू बदली और क्या है
तू क्यों ना माने पगली तू क्या है

रत्न भरें हों रतनालय में
भले जड़े हों देवालय में
कोहिनूर है तू ही असली और क्या है
तू क्यों ना माने पगली तू क्या है

सात जनम की बात न जानूँ
हस्त गणित की बात न मानूँ
जिंदगी तू ही अगली पिछली और क्या है
तू क्यों ना माने पगली तू क्या है

मुस्कानों के मोती ले ले
आँखों की ये ज्योति ले ले
निर्मल सरल हृदय ये तेरा
शरारत वाली बातें ले ले

प्रमाणों का ढ़ेर है पगली और क्या है
फिर भी क्यों ना माने पगली तू क्या है

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

राजीव के 'फूल'

हिये चोट ना राखिये, मन पर मन भर भार।
धरा चीर ऊपर निकले, तरु धरे आकार ।।

मीठा-मीठा जग कहे, छिपी तेज तलवार।
दो लोचन पीछे धरो, बचे पीठ का वार ।।

प्रसून प्यारे भ्रमर को, जुगनू को है रात।
अपने हिस्से में दर्द, अपनी अपनी बात ।।

निद्रा ही संसार है, सूने होश हवास।
सपने उड़ते देखिये, खग बन बन आकाश ।।

विरह वेदना से भरी, बैठी लेकर आस।
साजन सरहद पर डटे, जीतेगा विश्वास ।।

फलीभूत जब धारणा, मन में रहे उमंग।
गाँधी होते खुश वहाँ, सब मिल रहते संग ।।